Natasha

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राजा की रानी

रास्ते में गाड़ी लेट हो जाने के कारण राजलक्ष्मी के काशी के मकान पर जब मैं पहुँचा तो बहुत देरी हो गयी थी। बैठक के सामने एक बूढ़े से ब्राह्मण हुक्का पी रहे थे। उन्होंने मुँह उठाकर पूछा, “क्या चाहते हैं?”


यह सहसा नहीं बतला सका कि क्या चाहता हूँ। उन्होंने फिर पूछा, “किसे खोज रहे हैं?”

किसे खोज रहा हूँ, सहसा यह बतलाना भी कठिन हो गया। जरा रुककर बोला, “रतन है क्या?”

“नहीं, वह बाजार गया है।”

ब्राह्मण सज्जन व्यक्ति थे। मेरे धूलि-भरे मलिन मुख की ओर देखकर शायद उन्होंने अनुमान कर लिया कि मैं दूर से आ रहा हूँ, इसलिए दयापूर्ण स्वर में बोले- “आप बैठिए, वह जल्द आएगा। आपको क्या सिर्फ उसी की जरूरत है?”

पास ही एक चौकी पर बैठ गया। उनके प्रश्न का ठीक उत्तर न देकर पूछ बैठा, “यहाँ बंकू बाबू हैं?”

“हैं क्यों नहीं।”

यह कहकर उन्होंने एक नये नौकर को कहा कि बंकू बाबू को बुला दे।

बंकू ने आकर देखा तो पहले वह बहुत विस्मित हुआ। बाद में मुझे अपनी बैठक में ले जाकर और बिठाकर बोला, “हम लोग तो समझते थे कि आप बर्मा चले गये।”

इस 'हम लोग' का क्या मतलब है, यह मैं पूछ नहीं सका। बंकू ने कहा, “आपका सामान अभी गाड़ी पर ही है क्या?”

“नहीं, मैं साथ में कोई सामान नहीं लाया।”

“नहीं लाये? तो क्या रात की ही गाड़ी से लौट जाना है?”

मैंने कहा, “सम्भव हुआ तो ऐसा ही विचार करके आया हूँ।”

बंकू बोला, “तब ठीक है, इतने थोड़े वक्त के लिए सामान की क्या जरूरत!”

नौकर आकर धोती, गमछा और हाथ-मुँह धोने को पानी आदि जरूरी चीजें दे गया; पर, और कोई मेरे पास नहीं आया।

भोजन के लिए बुलाहट हुई, जाकर देखा, चौके में मेरे और बंकू के बैठने की जगह पास पास ही की गयी है। दक्षिण का दरवाजा ठेलकर राजलक्ष्मी ने अन्दर प्रवेश करके मुझे प्रणाम किया। शुरू में तो शायद उसे पहिचान ही न सका। जब पहिचाना तो ऑंखों के सामने मानो अन्धकार छा गया। यहाँ कौन है और कौन नहीं, नहीं सूझ पड़ा। दूसरे ही क्षण खयाल आया कि मैं अपनी मर्यादा बनाये रखकर, कुछ ऐसा न करके जिसमें कि हँसी हो, इस घर से फिर सहज ही भले मानस की तरह किस तरह बाहर हो सकूँगा।

राजलक्ष्मी ने पूछा, “गाड़ी में कुछ तकलीफ तो नहीं हुई?”

इसके सिवा वह और क्या पूछ सकती थी? मैं धीरे से आसन पर बैठकर कुछ क्षण स्तब्ध रहा, शायद एक घड़ी से अधिक नहीं और फिर मुँह उठाकर बोला, “नहीं, तकलीफ नहीं हुई।”

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